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शेखर

  अज्ञेय जी कहते हैं ‘मेरा सच्चा पाठक वही है, जो मेरा लिखा हुआ समझे और उसके अनुसार कर्म करे।’ शेखर को लगता, उसके शरीर में कोई परिवर्तन हो रहा है। उसे लगता, वह बीमार है; उसे लगता, उसमें बहुत शक्ति आ गयी है; और वह, अपनी दुम का पीछा करते हुए कुत्ते की तरह, अपने ही आसपास चक्कर काटकर रह जाता...      अपने शरीर की माँग वह नहीं समझता, लेकिन उसे लगता, यह माँग कुछ अनुचित हैै, कुछ पापमय है। और वह चाहता कि किसी तरह उसे दबा डाले, कुचल डाले, धूल में ऐसा मिला डाले कि उसका पता भी न लगे, चाहे शरीर ही उसके साथ क्यों न नष्ट हो जाय...      वह मन उस पर से हटाना चाहता। यह तो वह जानता नहीं था कि किस तरह से शरीर से मन हटाए, लेकिन कविता में रुचि थी, और इसलिए उसे आशा थी कि वह उसमें अपने को भुला सकेगा। वह हर समय, हर प्रकार की कविता पढ़ने लगा। उसने संस्कृत-कवि पढ़े, उसने उर्दू से अनुवाद पढ़े, उसने जो कवि उसकी पाठ्य-पुस्तकों में थे — Tennyson, Wordsworth, Shelley, Christina Rossetti, Scott — सब पूरे पढ़ डाले। फिर उसने वे कवि पढ़ने आरम्भ किये, जो उसकी पुस्तकों में नहीं थे...