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शेखर

  अज्ञेय जी कहते हैं ‘मेरा सच्चा पाठक वही है, जो मेरा लिखा हुआ समझे और उसके अनुसार कर्म करे।’ शेखर को लगता, उसके शरीर में कोई परिवर्तन हो रहा है। उसे लगता, वह बीमार है; उसे लगता, उसमें बहुत शक्ति आ गयी है; और वह, अपनी दुम का पीछा करते हुए कुत्ते की तरह, अपने ही आसपास चक्कर काटकर रह जाता...      अपने शरीर की माँग वह नहीं समझता, लेकिन उसे लगता, यह माँग कुछ अनुचित हैै, कुछ पापमय है। और वह चाहता कि किसी तरह उसे दबा डाले, कुचल डाले, धूल में ऐसा मिला डाले कि उसका पता भी न लगे, चाहे शरीर ही उसके साथ क्यों न नष्ट हो जाय...      वह मन उस पर से हटाना चाहता। यह तो वह जानता नहीं था कि किस तरह से शरीर से मन हटाए, लेकिन कविता में रुचि थी, और इसलिए उसे आशा थी कि वह उसमें अपने को भुला सकेगा। वह हर समय, हर प्रकार की कविता पढ़ने लगा। उसने संस्कृत-कवि पढ़े, उसने उर्दू से अनुवाद पढ़े, उसने जो कवि उसकी पाठ्य-पुस्तकों में थे — Tennyson, Wordsworth, Shelley, Christina Rossetti, Scott — सब पूरे पढ़ डाले। फिर उसने वे कवि पढ़ने आरम्भ किये, जो उसकी पुस्तकों में नहीं थे...

वेदना

  संवाद तात : (संवेदना के स्वर में) आज रात्रिभोज साथ ही करेंगे। प्रसूत : हूँ। तात : स्कूल जा रहे हो न? प्रसूत :  हाँ। तात :  हाँ—आ! स्कूल जाना बंद मत करना। प्रसूत :  ( कुछ विचारकर, रुँधे गले से) हूँ। कविता वेदने! आएगी प्रणयी की याद, छाएगी वेदना विकराली। होगा जब प्रणय-स्थल, परिजनो से खाली।। हुआ है मानवता के नव-प्रसूत की स्व-मनीषा से आत्मानुभूत।।

दीख गई परिवार की एकता

  जा रहे एक सैर पर परिवार जन, आए घर पर कहा, ‘रखोगे ध्यान धेनु का अनुज तुम?’ कहा अनुज ने कृषि-कार्य का कुछ ध्यान धरते, ‘है बहुत मन किन्तु नहीं जीवन-क्षण! काम है मुझे बहुत, भरपूर, रख लीजिये एक मज़दूर!’ पर-घटित को आत्मानुभूत करते, दृष्टा ने देखा दो भाइयों का छद्म-प्रेम! मुझसे उनका सम्मान चाहने वाले, अनुज द्वारा किया गया सम्यक-मान! याद आई एक लोक-कथाः लक्ष्मण के सर्वस्व निछावर करने की — अग्रज को न हो कठिनाई, नहीं किया अभ्यास-कार्य व स्थगित की पढ़ाई। कहा गृहलक्ष्मी ने, ‘ज्येष्ठ हो गए वृद्घ, हुई यदि अस्वस्थता, मैं न रख पाऊँगी ख्याल, न कर पाऊँगी खातिर!’ दृष्टा के श्रवणों में गूँज उठे उलहाने, जब एक बार ज्येष्ठ ने मुझसे किया अनुरोध — कीचड़-से समलम् जल में स्नान करने का! मना करने पर मैंने सुने, गृहलक्ष्मी के ताने, उसने कहा, ‘पुत्र तूने दिया हृदय-आघात, न मानी तात की यह बात!’ आज दीख गया लक्ष्मी के मन का, ज्येष्ठ के प्रति आदर! आया समझ, परिजनो में है, श्वान-समाज सरीखी एकता!

पर-वशता

  किसी को यह अनुमति क्यों देनी कि, वह जब चाहे हमें हर्षित कर दे, और जब मन हो विषाद से भर दे?