जा रहे एक सैर पर परिवार जन, आए घर पर कहा, ‘रखोगे ध्यान धेनु का अनुज तुम?’ कहा अनुज ने कृषि-कार्य का कुछ ध्यान धरते, ‘है बहुत मन किन्तु नहीं जीवन-क्षण! काम है मुझे बहुत, भरपूर, रख लीजिये एक मज़दूर!’ पर-घटित को आत्मानुभूत करते, दृष्टा ने देखा दो भाइयों का छद्म-प्रेम! मुझसे उनका सम्मान चाहने वाले, अनुज द्वारा किया गया सम्यक-मान! याद आई एक लोक-कथाः लक्ष्मण के सर्वस्व निछावर करने की — अग्रज को न हो कठिनाई, नहीं किया अभ्यास-कार्य व स्थगित की पढ़ाई। कहा गृहलक्ष्मी ने, ‘ज्येष्ठ हो गए वृद्घ, हुई यदि अस्वस्थता, मैं न रख पाऊँगी ख्याल, न कर पाऊँगी खातिर!’ दृष्टा के श्रवणों में गूँज उठे उलहाने, जब एक बार ज्येष्ठ ने मुझसे किया अनुरोध — कीचड़-से समलम् जल में स्नान करने का! मना करने पर मैंने सुने, गृहलक्ष्मी के ताने, उसने कहा, ‘पुत्र तूने दिया हृदय-आघात, न मानी तात की यह बात!’ आज दीख गया लक्ष्मी के मन का, ज्येष्ठ के प्रति आदर! आया समझ, परिजनो में है, श्वान-समाज सरीखी एकता!
संवाद तात : (संवेदना के स्वर में) आज रात्रिभोज साथ ही करेंगे। प्रसूत : हूँ। तात : स्कूल जा रहे हो न? प्रसूत : हाँ। तात : हाँ—आ! स्कूल जाना बंद मत करना। प्रसूत : ( कुछ विचारकर, रुँधे गले से) हूँ। कविता वेदने! आएगी प्रणयी की याद, छाएगी वेदना विकराली। होगा जब प्रणय-स्थल, परिजनो से खाली।। हुआ है मानवता के नव-प्रसूत की स्व-मनीषा से आत्मानुभूत।।
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